भारतीय समाज के लिए कोढ़ में हुई खाज की तरह हैं दृश्यम – हरिओम राजोरिया

Drishyam – 2 इप्टा के बिलकुल नए साथी गिरिराज के साथ आज दृश्यम – 2 फिल्म देखने गया था। कैसा अभागा हूं कि दृश्यम – प्रथम नहीं देख पाया। कल एक मित्र ने सलाह दी थी कि बुरे से बुरा सिनेमा भी देखना चाहिए इसलिए फिर मैं रुका नहीं और चला ही गया।

Drishyam – 2  फिल्म में किसने क्या किया है इसकी सूची आपको नहीं दूंगा पर फिल्म में हुईं श्रृंखलाबद्ध विचित्रताओं /मूर्खताओं का आंशिक उल्लेख जरूर करूंगा। फिल्म में एक बात मुझे सबसे अच्छी लगी कि किरदार भंगिमाएं बनाने के स्थान पर अगर वास्तविक अभिनय करते तो परिकल्पनानुसार फ़िल्म बिगड़ सकती थी। फिल्म में चौंकाने वाले तत्व भारी मात्रा में हैं। अभिनय के स्थान पर तरह-तरह की ध्वनियों से भय और विस्मय पैदा करने का निर्दोष प्रयास किया गया है और इस प्रयास में फिल्मकार पूरी तरह से असफल हो गया है।

आसाराम टाइप कथावाचकों के उदाहरण

 

Drishyam – 2  इस फिल्म को आसाराम टाइप कथावाचकों के उदाहरण से समझा जा सकता है कि कुछ अर्धशिक्षित लोग जिस तरह से समाज में अंधविश्वास फैलाकर लाखों लोगों के बीच नाम और नामा कमाते हैं और आंदोलनकारी विचार का शमन करके यथास्थिति बनाए रखते हैं। उसी तरह से इस तरह की प्रतिगामी फिल्में प्रतिरोध की संस्कृति से समाज का ध्यान हटाती हैं। इस शरारतपूर्ण सुनियोजित कुविचार को समझने की क्षमता आम दर्शक के पास नहीं होती और ये फिल्मकार इसी पोल की खोल में छुपे रहकर अपना खेल कर जाते हैं।

आपकी कहानी दिलचस्प है

फिल्म को देखते हुए हंस पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव जी की मुझे बहुत याद आई। किसी भी कहानी के आईडिया को एक पंक्ति या वाक्य में व्यक्त करने की उनमें अदभुत क्षमता थी । जैसे किसी कहानी पर वे लिख देते – ” आपकी कहानी दिलचस्प है पर इसके अलावा कुछ भी नहीं”। कभी लिखते – आपकी पूरी कहानी कल्पना में घटित हो गई , जीवन से तनिक भी प्रेरित नहीं”। इस फिल्म में भी लेखक कल्पना से मूर्खता की तरफ गया है। फिल्म में यह है कि फ़िल्म कुछ नहीं है।

फ़िल्म बनाने से पहले ही संपूर्ण मूर्खता

एक लेखक अपनी कहानी चोरी न हो जाए इस भय से फ़िल्म बनाने से पहले ही संपूर्ण मूर्खता के इस किस्से को पुस्तक रूप में छपवा लेता है। पर लेखक को कहानी का अंत नहीं मिलता। अंत के लिए वह एक नौजवान की लोथ को कब्र से निकालकर निर्माणाधीन कोतवाली के भवन में गाड़ देता है। फिल्म का लेखक कानूनी अड़चन में फंसता है तो एक छद्म लेखक सच्चा किस्सा संसार के सारे काम छोड़कर इस गुत्थी को सुलझाने में लगे सच्चे और मासूम पुलिस वालों को बता देता है। फिल्म के भीतर फिल्म बनने का रास्ता जैसे ही साफ होता है कि फिल्म समाप्त हो जाती है।

Drishyam – 2  हमारे साथ छविग्रह में मात्र सात लोग बैठे थे। बचपन में हम 85 पैसे का टिकट और पांच पैसे की चार बीड़ियां लेकर टॉकीज की प्रथम बेंच पर बैठा करते थे। बगैर फब्तियों, सीटियों और समूहवाचक संज्ञा में दी गई गालियों के अभाव में सिनेमा एक सूखाग्रस्त क्षेत्र बनकर रह गया है। और फिर भारतीय समाज के लिए कोढ़ में हुई खाज की तरह हैं दृश्यम – दो जैसी फिल्में।

 

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