कबहुँ न छोड़ें खेत – ध्रुव शुक्ल

भाँति-भाँति की भीड़ में अब हर चेहरा खास नहीं होता। भरोसा नहीं होता किसी पक्षधर की बात पर । राह चलते क्यों किसी पर विश्वास नहीं होता। अपने कहलाने वालों में पास रहते भी कोई पास नहीं होता। किसी की मौत पर ‘गहरा दुख’ व्यक्त करते शब्दों में दुख का आभास नहीं होता। प्रेम क्या कम हुआ है , रूह में अहसास नहीं होता?
कोई किसी को चला नहीं रहा, सब ख़ुद ही चल रहे हैं — नदी जो नीली प्रशांति में खोयी-सी लगती है, कभी ऐसे बहा ले जाती है जैसे उसे किसी की परवाह नहीं। पर वह प्यास बुझाने का गुण कभी नहीं खोती। कभी बाढ़ में जिनकी गृहस्थी उसमें डूब जाती है, बह जाती है, वे नदी को अपना दुश्मन नहीं मानते। किनारों के द्वन्द्व से परे अंतःसलिला बहती रहती है। दाह से परे हृदय में अकम्प ज्योति जलती ही रहती है।
आँधियों से परे साँस के आरोह-अवरोह पर शान्त अजपा जप चलता ही रहता है। आकाश सबके शब्दों की स्याही सोखकर सबके आँगन में उतर आता है। न्याय और अन्याय से परे पृथ्वी में क्षमा शेष रह जाती है।
आते-जाते लोगों को देखकर लगता ही नहीं कि इन्हें कुछ मिल गया है। सब अपने दुख का मुकुट लगाकर अपने ही दुख के राज्य का विस्तार करते लगते हैं। अपने ही दुख के साम्राज्य में अपने आपसे हारते रहते हैं और कहते हैं कि दूसरों ने हरा दिया। पता नहीं वे किस पर विजय पाना चाहते हैं।
लोग अंधेरे में अपनी छाया ढूँढते-से लगते हैं। जो मिलती नहीं। फिर वे बेबस होकर किसी छत्र-छाया में अपना सहारा खोजने लगते हैं। लगता है कि कोई अपनी सर्वव्यापी शरण में रहने को तैयार नहीं– नेता अपनी शरण में नहीं, वे भीड़ में शरण खोज रहे हैं। अभिनेता अपनी शरण में नहीं, वे बाज़ार में शरण खोज रहे हैं। विक्रेता अपनी शरण में नहीं, वे मीडिया में शरण खोज रहे हैं। मीडिया के लोग भी अपनी शरण में नहीं, वे नेताओं में शरण खोज रहे हैं। सब मिलकर भीड़ रच रहे हैं और उसी की छाया में शरण खोज रहे हैं। भीड़ भी अपनी शरण में नहीं, वह भाँति-भाँति के बहुरूपियों में शरण खोज रही है।
अपने आपको लगातार भूलते चले जाने का यह रोग एक हजार साल पुराना तो हो गया है। इस रोग के इलाज के लिए जितने राजनीतिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित हुए वे भी काम नहीं आये। महात्मा गांधी ने सौ साल पहले इस रोग का इलाज यह बताया था कि – ‘हमें दुनियावी लोभ की हद बांधनी चाहिए’। अगर यह हद नहीं बांधी गयी तो जीवन ही जीवन को गुलाम बनाकर उसका शोषण करता रहेगा। अपनी-अपनी माटी में बसी क्षमा, दया , संयम और करुणा को सँभाले रखने से पूरे देश की माटी सँभल जाती है।
सूरा सो पहचानिए, लरै दीन के हेत
पुरजा-पुरजा कट मरै, कबहुँ न छोड़े खेत

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