स्मृति शेषः स्मृतियों में गूंजता रहेगा ‘बंसी’ का मंच राग

विनय उपाध्याय
समय होगा, हम अचानक बीत जायेंगे….। तमाम आशंकाओं और धुकधुकी के बीच आखि़र अपने बीत जाने की सचाई पर बंसी कौल ने मोहर लगा दी। हमारे वक्ती दौर के एक विलक्षण रंगकर्मी ने इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह दिया। हाँ, लेकिन समय होगा और कला की रंगभूमि पर बंसी कौल के हस्ताक्षर भी रौशन रहेंगे। फिज़ाओं में इस बंसी के सुर लहराते रहेंगे जो अपने रंग-सप्तक में ‘मंच-राग’ के जाने कितने आरोह-अवरोहों के बीच अपनी निराली बंदिशों में प्राण फूँकता रहा।
जम्मू-कश्मीर की सरज़मीं से उठती रंगो महक को अपनी रगों में भरकर नाटक को नई तसवीर और तासीर में ढालने वाला अपनी जि़द का यह निराला फनकार उम्र के इस इकहत्तरवें मुकाम पर बीमारियों के बीहड़ में इस तरह घिर जाएगा कि जीवन के रंगमंच पर फिर वापसी न हो सकेगी, सोचा न था। लेकिन निर्मम सच यही है। उनकी मृत्यु की सूचना पलक झपकते देश-दुनिया में फैल गई है। पंख पसारती यादों में बंसी की छवियों के छोर खुल रहे हैं। एक शख़्स देह से परे अपनी रचनात्मक उर्जा में कितना व्यापक, गहरा और दूर तक अपने होने को साबित करता है, बंसी कौल इस अर्थ में बेमिसाल है।
वे एक मात्र ऐसे रंगकर्मी रहे जिन्होंने हिन्दी रंगमंच पर विदूषकीय शैली का पुनराविष्कार कर आधुनिक नाट्य संवेदना और सम्प्रेषण का एक सर्वथा नया पुल तैयार किया। अपने इस काम के लिए वे देश-देशांतर में स्वीकारे गये। सराहे गये। भारत सरकार ने उन्हें 2014 में पद्मश्री से सम्मानित किया। मध्यप्रदेश के संस्कृति महकमे ने शिखर और राष्ट्रीय कालिदास अलंकरण से विभूषित करते हुए बंसी के रंग अवदान का मान किया। एक ऐसे उद्भट कलाकार के रूप में बंसी ने ख़ुद को गढ़ा जहाँ कवि, चिंतक, चित्रकार, आकल्पक, अभिनेता और निर्देशक के कि़रदारों में उनकी बेसाख़्ता मौजूदगी को ज़माना देखता रहा। दुश्वारियों और संघर्षों से बंसी भी बच न पाए लेकिन अपनी रार ठानते हुए नई राहों पर पाँव नापते रहना उन्हें रास आता रहा। जो मंजि़लें उन्हें हासिल हुई, अब वे नई नस्लों के लिए विरासत हैं।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली में नसीरूद्दीन शाह और ओमपुरी के समकालीन स्नातक रहे बंसी 1984 में भोपाल में नाट्य समूह ‘रंग विदूषक’ की स्थापना की। हिन्दी पट्टी के संघर्षशील, उत्साही और नवोन्मेषी कलाकारों के लिए यह रेपर्टरी एक ऐसी शैली में ख़ुद को गढ़ने और निखारने मरकज़ बनीं जिसने आधुनिक रंगमंच पर प्रयोग और नवाचार का नया विश्व ही रच दिया। असहमतियाँ और मत-मतांतर कला परंपरा के आसपास उठने वाली स्वाभाविक आवाज़ें हैं, सो बंसी और ‘रंग विदूषक’ के हिस्से भी आयीं लेकिन एक लगातार सिलसिले ने इस शैली के देशज संस्कारों तथा नवता के आग्रहों में रचनात्मकता की तलाश की। नए दर्शक तैयार हुए। कौतुहल, जिज्ञासा और जनरंजन का नया ताना-बाना तैयार हुआ।
अपनी इस पहचान के साथ बंसी कौल के कई नाटक गिनाये जा सकते हैं जिनमें ‘रंग बिरंगे जूते’ से लेकर अनोखी बीबी, खेल गुरु का, जादू जंगल, पचरात्रम्, तुक्के पे तुक्का, बच्चों का सर्कस, सोच का दूसरा लाभ, मानों हमारी बात, समझौता, कहन कबीर, किस्से आफन्ती के, सौदागर प्रमुख हैं।
रंग विदूषक ने अनेक प्रतिष्ठित नाट्य समारोह में भाग लिया वहीं अहिन्दीभाषी क्षेत्रों चैन्नई, विशाखापट्टनम, बैंगलोर, त्रिवेन्द्रम, पणजी, कलकत्ता आदि शहरों में अपने नाटकों के नाट्योत्सव भी आयोजित किये। रंग विदूषक के कलाकारों ने थाईलैण्ड, सूरीनाम, कोलम्बिया, फ्राँस, वैनेजुएला, कराकस, करासोवा, बांग्लादेश, भूटान, डेनमार्क, सिंगापुर एवं पाकिस्तान का भ्रमण किया तथा बैले, आपेरा और शेक्सपीयर थियेटर से साक्षात्कार किया। शहरी एवं ग्रामीण तथा लोक कलाकारों के बीच विचारों का आदान-प्रदान हुआ। विचार के स्तर पर भी तथा व्यवहार के स्तर पर भी। बकौल बंसी व्यवहार से अलग विचार के हिमायती नहीं रहे। वे कहते- हम प्रेक्टिस में से नई तकनीकों और विचारों को प्राप्त करना चाहते हैं। बल्कि एक स्तर पर हमारी कोशिश तो इस व्यवहार से ही नई अभिनय शैलियों एवं नई स्क्रिप्ट्स को भी प्राप्त करने की है। इस दिशा में रंगविदूषक ने पचास से भी अधिक नाटकों का मंचन किया। बंसी कौल के अनुसार इन नाटकों में जहाँ एक ओर वन्य प्राणी संरक्षण, पर्यावरण के प्रति सजगता, यातायात के नियम पालन, साक्षरता, ध्वनि प्रदूषण आदि बिन्दुओं को चिन्हाँकित किया, वहीं कम्प्यूटर युग में समाप्त होती हुई संवेदनाओं को भी जगाने का प्रयास किया गया है। उनका मानना था कि बहुमंजिला इमारतों में अब खेल के मैदान समाप्त होते जा रहे हैं। इसलिये अब रंगमंच का दायित्व बढ़ गया है। इसलिये वर्तमान में रंगमंच में गंभीर विचार-विमर्श की आवश्यकता है, नये रंगकर्म अन्वेषित करना जरूरी है। इसके लिये जितनी आवश्यकता नई स्क्रिप्ट्स की है उतनी ही आवश्यकता है, नये रंगकर्म अन्वेषित करना जरूरी है। इसके लिये जितनी आवश्यकता नई स्क्रिप्ट्स की है उतनी ही आवश्यकता अभिनय और फॉर्म की नई तकनीकों को ईजाद करने की भी। इस कोशिश में भी हमें कुछ उपलब्धियाँ हासिल हुई हैं। शायद नाटक की एक नई भाषा को ईजाद करने के लिये सबसे सही मौका भी यही है कि हम इसे एक नई पौध से शुरू करें।
पद्मश्री के प्रसंगवश अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा था- “मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो मुझे लगता है कि हम बहुत देर तक चलते रहे। हम सब लोगों ने मिलकर काफी मेहनत भी की, सिर्फ रंग आंदोलन के लिये नहीं, बल्कि हिन्दी क्षेत्र के थियेटर को एक नई दिशा देने के लिए और ये कोशिश हमेशा जारी भी रहेगी।”
बंसी और रंग विदूषक की सक्रियता के सहभागी कवि-नाटककार राजेश जोशी का मानना है कि सूत्रधार और विदूषक संभवतः भारतीय नाटक के दो ऐसे चरित्र हैं, जो उसे दुनिया के दूसरे नाटकों से अलग करते हैं। लेकिन विदूषक की दुनिया उतनी भर नहीं है, जितनी हम संस्कृत के नाटक या भारतीय रंगकर्म को लेकर किये गये शास्त्रीय विवेचनों से जानते हैं। संस्कृत नाटक के विदूषक से बाहर भी विदूषक की एक दुनिया है। लोक नाट्य में उसके अलग स्वरूप और रंग हैं। रंग विदूषक इसी प्रक्रिया का परिणाम है। कहा जा सकता है कि वह इस प्रक्रिया का उत्पाद है जो विचार और सृजनात्मक व्यवहार से पैदा हुआ और इसके लिए बंसी कौल हमेशा साधुवाद के हकदार रहेंगे।
बंसी के रंग-रसायन को ठीक से जांचने-परखने की कवायद होती है तो क़रीब आधी सदी में फैला हुआ उनका पुरूषार्थ सामने आता है। दिलचस्प यह कि उन्होंने अपनी स्वतंत्र रेपर्टरी बच्चों के साथ शुरू की। नौनिहालों ने तब रंग-बिरंगे जूते, मोची की अनोखी बीवी आदि नाटक खेले थे। यह 90 का दशक था। ग़ौर करने की बात यह है कि तब के बहुत से बाल रंगकर्मियों ने बड़े होकर ‘रंग विदूषक’ के सूत्र-सम्हाले। बंसी के रंग संस्कारों और उनकी शखि़्सयत के बहुत क़रीबी आलोचक रामप्रकाश कहते हैं- “मैंने कई रंग संस्थाओं को बनते-सँवरते देखा है। अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि कोई भी नाटक मंडली एक निर्देशक या संचालक के नाम पर चलती है लेकिन रंग विदूषक में ऐसा नहीं है। इस रेपर्टरी ने कई निर्देशक तैयार किये। उन्हें अपने काम में पूरी स्वायत्ता मिली। यह दुर्लभ है। इसके पीछे बंसी कौल की खुली रंग दृष्टि रही।”
बंसी कौल का थियेटर हस्तक्षेपकारी थियेटर रहा। यह उनकी शखि़्सयत में रच-बसकर आया, लिहाज़ा वे रंगमंच से परे भी आंदोलनकारी भूमिकाओं में ऐसे ही नमूदार होते रहे। मिसाल के तौर पर भोपाल गैस कांड और 1992 के सांप्रदायिक दंगे जब बंसी ने पूरे आंदोलन की रूपरेखा को रचनात्मक प्रतिरोध की शक्ल दी थी। इधर कोरोना ने जब सारी दुनिया पर कहर बरपाया तो बंसी भी भीतर तक आहत हुए। दिल्ली में बैठकर भोपाल के अपने रंग साथियों और देश भर के कलाकारों से फोन पर बात कर ढाढस बंधाते रहे।
‘रंग विदूषक’ ने रेपर्टरी की सीमाओं में रहते कलाकारों के लिए जो और जितना किया वह किसी स्कूल या गुरूकुल से कम नहीं। इस तारतम्य में उदय शहाणे, फरीद बज़मी, हर्ष दौण्ड, संजय श्रीवास्तव, नीति श्रीवास्तव सहित अनेक रंगकर्मियों के नाम लिए जा सकते हैं। कहते हैं, जीवन के सारे ऋण चुकाए नहीं जाते। कुछ ऋण ऐसे होते हैं जिन्हें माथे पर धरकर चलने में ही धन्यता का अनुभव होता है। बंसी और उनके शिष्य-रंगकर्मियों के बीच परस्परता के ऐसे ही साक्ष्य बने रहेंगे। आमीन….।

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