जो मिला वही मुकद्दर समझ लिया
कुमार विनोद
अपने बीस साल पुराने ऐतिहासिक स्कूटर से गिरकर, मेरे मित्र महोदय की एक टांग टूट गई। वैसे दिखाई देने में तो उनका स्कूटर पंद्रह-सोलह साल से ज्यादा पुराना लगता ही नहीं था, अलबत्ता इसके हॉर्न को छोडकर, बचे हुए अंग-प्रत्यंग से आने वाली मधुर आवाजें अवश्य ही सड़क पर ‘जिंदगी इक सफर है सुहाना टाइप कोई गीत गाए बिना ही मशीनी अंदाज़ में चले जा रहे लोगों की जीवन यात्रा को ‘म्यूजि़कल जर्नी बनाने के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं।
मैं अपने मुख पर उदासी पाउडर पोतकर, ठुड्डी पर सिर्फ मास्क को ही नहीं, बल्कि अपने पूरे चेहरे को लटकाकर, उनका हाल, और थोड़े समय के लिए थम चुकी उनकी चाल, को जानने के लिए उनके घर जा पहुंचा और दुखी राग में मंद स्वर निकालते हुए पूछने लगा—कहो मित्र, अब कैसे हो मेरे पूछने मात्र की देरी थी। ताज़ा-ताज़ा ऑफ किए गए टीवी की बुझ चुकी मध्यवर्गीय आकार की स्क्रीन की ओर एक ठंडी-सी निगाह डालकर, हाल ही में गोल्डन जुबली मना चुके मित्र महोदय हालिया बजट पर अपनी एकसूत्रीय गरमा-गरम भड़ास निकालने लगे -अरे भाई, इनकम टैक्स में तो थोड़ी राहत दे देते! रही बात डायमंड जुबली मना चुके सुपर सीनियर सिटीजन्स को रिटर्न दाखिल करने से दी जाने वाली छूट की, तो क्या आयकर से पूर्ण मुक्ति के लिए उन्हें उम्र की पिच पर शतक जमाने का इंतज़ार करना पड़ेगा या फिर मुक्तिधाम का टिकट कटने का, या विच एवर इस अर्ली!
वे जैसे ही चुप हुए, मैंने तुरंत ही एक सवाल दाग दिया-मित्र! अगर दुर्घटना में एक की बजाय तुम्हारी दोनों टांगें टूट जातीं तो तुम क्या कर लेते थोड़ी देर के लिए तो मानो उन्हें सांप सूंघ गया लेकिन वे संयत होकर बोले-कुछ भी तो नहीं! अब एक टांग पर प्लास्टर चढ़ा है, तब दोनों पर चढ़ जाता। थोड़ी परेशानी और बढ़ जाती।
मैं बोला—यही तो! अब देखो, सरकार कोई नया टैक्स भी तो लगा सकती थी, या फिर टैक्स के रेट ही बढ़ा देती तो क्या तुम सरकार का कुछ बिगाड़ लेते वैसे भी जिस प्रकार एक खून की सजा भी फांसी है और सौ खून की भी, इसी तरह तुम थोड़ा नाराज हो जाओ या ज्यादा, अपने हिस्से के अधिकतम एक वोट से ही तो वंचित रख पाओगे सरकार को! अब ये तो हो नहीं सकता कि ज्यादा नाराजगी की स्थिति में तुम अपनी पसंदीदा विपक्षी पार्टी को एक की बजाय सौ वोट डाल दोगे। मेरी मानो तो ‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लियाÓ गुनगुनाओ और हर फिक्र को धुएं में उड़ाते जाओ। वैसे भी संतोषी सदा सुखी।
कबीरदास शायद इसी अवसर के लिए कह गए हैं, ‘गो-धन, गज-धन, बाजि-धन और रतन-धन खान। जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान।