भारत की सैन्यआधुनिकीकरण : चीन के खतरनाक मंसूबे उजागर, दशकों से घात लगाये बैठा है पकिस्तान

नईदिल्ली। साम्राज्यवादी चीन के खतरनाक मंसूबे लगातार उजागर हो रहे हैं और पाक दशकों से घात लगाये बैठा है, देश की सुरक्षा के लिए चाक-चौबंद आधुनिक प्रतिरक्षातंत्र विकसित करना जरूरी है। इसके लिए सेना को आधुनिक हथियारों व युद्धक तकनीक से लैस करना वक्त की जरूरत है। पिछले कई दशकों से भारत की गिनती दुनिया में सबसे बड़े हथियार खरीदारों में होती रही है। साथ ही खरीद में होने वाले तमाम घोटाले भी गाहे-बगाहे उजागर होते रहे हैं। यहां तक कि ये हथियार दुश्मन के खिलाफ काम आये न आये हों, मगर सरकार पर हमले हेतु विपक्ष का हथियार जरूर बनते रहे हैं। बहरहाल, राजग सरकार ने सेना को आधुनिक हथियारों की आपूर्ति की दिशा में सार्थक पहल की है। वर्षों से लंबित खरीद के मामलों में तेजी आई है। लद्दाख में चीनी अतिक्रमण, खासकर गलवान घाटी में दोनों देशों के बीच हुए संघर्ष के बाद हथियार खरीद में तेजी आई है। उच्चस्तरीय सैन्य तैयारियों को गति मिली है। निस्संदेह अत्याधुनिक हथियारों के बिना सीमाओं को मजबूती दे पाना संभव नहीं है क्योंकि मौजूदा दौर में युद्धक तकनीकों में तेजी से बदलाव आया है। थल सेना के स्थान पर वायु सेना और ड्रोन तकनीकों का वर्चस्व बढ़ा है। हालांकि, कहा जाता रहा है कि वर्ष 2021-22 के बजट में मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर रक्षा बजट में करीब 1.4 फीसदी की वृद्धि पर्याप्त नहीं है, लेकिन वहीं दूसरी ओर सैन्य आधुनिकीकरण के लिए पूंजीगत परिव्यय को पर्याप्त बढ़ाया गया है ताकि तात्कालिक रक्षा चुनौतियों का मुकाबला करने में परेशानी न आये। यह राशि करीब बाईस हजार करोड़ बतायी जाती है। दरअसल, अगले सात-आठ वर्षों में रक्षा सामान के आधुनिकीकरण पर नौ लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च करने का प्रावधान किया गया है। निस्संदेह, यह स्वागतयोग्य कदम उस धारणा को तोडऩे का प्रयास करेगा, जिसमें कहा जाता था कि भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है।
इसमें दो राय नहीं कि रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता समय की सबसे बड़ी जरूरत है। यह कदम जहां दुर्लभ विदेशी मुद्रा की बचत करेगा, वहीं देश में रक्षा उत्पादन संबंधी उद्योगों के विस्तार से कालांतर में हम हथियारों के निर्यातक भी बन सकते हैं। महत्वपूर्ण यह भी कि देश में रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी। निस्संदेह जब देश में हवाई जहाज या बड़े अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण होगा तो उसके लिए आवश्यक कलपुर्जे व जरूरी सामग्री उपलब्ध कराने वाले छोटे, लघु व मध्यम दर्जे के उद्योगों के विकास को भी मदद मिलेगी। फिर आत्मनिर्भरता की एक नई शृंखला तैयार होगी। लेकिन जब हम रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की बात करते हैं तो प्रश्न उभरता है कि क्या हम शोध-अनुसंधान व गुणवत्ता के स्तर पर निर्माण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर पायेंगे। निस्संदेह मेक इन इंडिया मुहिम के लिए कारगरतंत्र विकसित करने के लिए व्यापक पैमाने पर तैयारी करनी होगी। यह सुखद ही है कि हाल ही में रक्षा मंत्रालय ने देश की प्रमुख स्वदेशी कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स से 83 हल्के लड़ाकू विमान तेजस खरीदने के लिये 48000 करोड़ रुपये के समझौते पर मोहर लगायी है। लेकिन यह भी हकीकत है कि बड़े पैमाने पर स्वदेशीकरण रातों-रात नहीं हो सकता। इसके लिए निजी क्षेत्र की अग्रणी भूमिका, प्रमुख तकनीकी विशेषज्ञों तथा विज्ञान व प्रौद्योगिकी के शीर्ष संस्थानों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही रक्षा उत्पादन से जुड़े पब्लिक सेक्टर यूनिटों की कार्यशैली व शोध-अनुसंधान की गुणवत्ता में व्यापक सुधार की जरूरत भी है, जिसकी अनुशंसा रक्षा मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने भी की है। वहीं गुणवत्ता के साथ जरूरी है कि रक्षा उपकरण सेना की जरूरतों के अनुरूप समय से मिल सकें। सरकार ने रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के निवेश के मापदंडों में छूट दी है। यह भी जरूरी है कि विदेशों से हथियारों की खरीद के साथ अंतर्राष्ट्रीय निर्माताओं तथा भारतीय फर्मों के बीच प्रौद्योगिकी हस्तांतरण भी सुनिश्चित किया जाये। कोशिश हो कि देश में अनुसंधान व नवाचार के लिए अनुकूल वातावरण बने।

 

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