खुदरा व्यापार का केंद्रीकरण : खाद्य व्यापार में वर्चस्व के खतरे
देविंदर शर्मा
जितनी बार आप एक सुपर मार्किट या साधारण से दिखने वाले करियाने स्टोर में खरीदारी करने दाखिल होते हैं, चुनाव के लिए वस्तुओं के अनेकानेक विकल्प पाकर चकरा जाते हैं। नाना प्रकार के खाद्य उत्पादों से शेल्फ खचाखच भरे होते हैं जो लुभावने पैकेटों में और ललचाती खरीदारी पेशकशों के साथ होते हैं। इससे किसी को भी यह भ्रम होने लगता है कि उपलब्ध विकल्पों में इजाफा हो रहा है। जबकि हकीकत यह है कि हमारे लिए विकल्प सीमित हो रहे हैं। ज्यादातर उत्पाद चंद कंपनियों के होते हैं और पिछले सालों के दौरान उनकी संख्या कम होती गई है। इसका कारण है, खाद्य प्रसंस्करण और खुदरा व्यापार का केंद्रीकरण होना, जिसमें कुछेक कंपनियों का वर्चस्व है।
यदि आपको लगता है कि इस किस्म का एकत्रीकरण केवल खाद्य वस्तुओं के खुदरा व्यापार या उद्योग में हो रहा है तो अपनी सांसें थामकर रखिए। यह केंद्रीकरण और एकत्रीकरण न केवल इस क्षेत्र में हो रहा है बल्कि समूची खाद्य उत्पादन शृंखला में जारी है, जिससे वस्तुत: ग्राहक के विकल्प सीमित होते जा रहे हैं। होता यह है कि पहले किसी कंपनी का एकाधिकार बनेगा, उसके बाद ऐसी कुछ कंपनियों का गठजोड़ बनेगा, जिससे पूरी खाद्य संवर्धन शृंखला पर उनका नियंत्रण हो जाएगा। जैसा कि यूनिवर्सिटी ऑफ मिस्सूरी के डॉ. विलियम हेफ्फरमैन ने 1991 में ही भविष्यवाणी कर दी थी कि ‘बीज से शुरू होकर शेल्फ तक पहुंचनेÓ के बीच के समूचे रूपांतरण पर कंपनियां अपना नियंत्रण बना लेंगी।
ठीक यही हुआ। पहले इस ओर बदलाव बहुत धीमी गति से चला, लेकिन वैश्वीकरण बनते ही इसका ग्राफ तेजी से ऊपर उठा। यह काम बाजार आधारित आर्थिकी के मूल मंत्र ‘ज्यादा विकल्प मायने ज्यादा प्रतिस्पर्धाÓ को सीमित करने लगा। तथ्य तो यह है कि जिस तरह से कंपनियों का अधिग्रहण और विलय देखने को मिला, खासकर 1980 के दशक के बाद से, उसमें सबसे बड़ी बलि प्रतिस्पर्धा की हुई है। जैसा कि हैफ्फरमैन और कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों ने चेताया था, ठीक उसके मुताबिक, जब बाजार के 40 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर केवल 4 कंपनियों का कब्जा हो गया तो वह प्रतिस्पर्धात्मक नहीं रहा। उपभोक्ता के लिए चुनने को विकल्प सीमित होने लगे।
मिलकियत में केंद्रीकरण बनने से धन और शक्ति एकाधिकार में जमा होने लगीं। संवर्धित खाद्य शृंखला में बना अदृश्य शक्ति केंद्रीकरण यह निर्धारित करने लगा कि कब, क्या बनाना और क्या खाना चाहिए। जब से निर्णय-निर्धारण लोगों की निजी पसंद से हटकर कंपनियों के बोर्ड रूम का विषय होने लगा है तब से तमाम वस्तुएं, यहां तक कि खाने-पीने की वस्तुओं के विकल्प भी सीमित होने लगे हैं। विज्ञापनों की चकाचौंध से रिवायती खान-पान से लोगों का लगाव कम होने लगा और जंक फूड का उपभोग दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से होने लगा। मोटापा और जीवनशैली संबंधी पैदा हुए रोग इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। खाद्य बाजार पर कॉर्पोरेट्स का नियंत्रण और कब्जा पहले से ज्यादा हो जाएगा। खबरों के मुताबिक अमेरिकी सरकार चाहती है कि लोगों को खान-पान और पौष्टिकता संबंधी ‘जागरूकताÓ बनाने की भूमिका निजी क्षेत्र निभाए।
पिछले कुछ वर्षों में, विश्व ने तीन बड़े खिलाडिय़ों के बीच गठजोड़ बनते देखा है– तकनीक, व्यापारिक अदारे, खुदरा व्यापारी-जो किसी देश की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नीतियां बनाने की प्रक्रिया में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है। 1970 के दशक से अमेरिका में ‘बड़ा बनो या बाहर हो जाओÓ वाले सिद्धांत को बढ़ावा दिया गया, इसने विश्व की कृषि संबंधी जननीतियों का पुनर्निर्धारण करते हुए समूची खाद्य शृंखला में एकीकृत करने का आगाज किया था। शायद इसी बात ने भारत के किसानों को फिक्र में डाला हुआ है और उनका आंदोलन दरअसल अपने उत्पाद की एक सुनिश्चित कीमत पाकर अपना जीवनयापन सुरक्षित करने हेतु है। जो कुछ वे मांग कर रहे हैं, वह खाद्य प्रणाली व्यवस्था में अपने विरुद्ध बन गए उस शक्ति असंतुलन को सही करने की कवायद है।
चाहे यह भूमि हो या बीज या फिर पशुधन। जिस तरह अमेरिका में चंद हाथों में इनका संचयन हुआ है, उसने दुनियाभर में इस चलन की शुरुआत कर डाली है। वहां छोटे किसान खेती छोड़ रहे हैं। इस बाबत फैमिली एक्शन एलाएंस इन द अमेरिका (अमेरिका में परिवारों का संयुक्त अभियान) के लिए करवाए गए ‘द फूड सिस्टम : कॉन्सेन्ट्रेशन एंड इट्स इम्पैक्टÓ नामक एक रोचक अध्ययन में बताया गया है कि किस तरह 2000 एकड़ से ज्यादा रकबे वाले खेत मालिकों की संख्या पिछले 40 सालों में 15 फीसदी से बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई है। इसी तरह इस काल में बड़े डेयरी फार्मों की संख्या में खासा इजाफा होते हुए आंकड़ा 80 से बढ़कर 1300 से ज्यादा हो गया।
वर्ष 2020 की भूमि रिपोर्ट के मुताबिक बिल एंड मैलिंडा गेट्स 242,000 एकड़ के साथ देश के सबसे बड़े भूस्वामी बन गए हैं। इस सूची में अगला नाम ओफ्फुट परिवार (190,000 एकड़) है। इस बात के मद्देनजर कि बहुत बड़ी जमीन के मालिक रहे जाने-माने पूंजीपति टेड टर्नर और डेविड रॉकफेलर को विगत में मिली सब्सिडियों से भारी लाभ हुआ है।
कृषि की बात फिर से करें तो 6 बड़ी बीज कंपनियों के संभावित विलय और अधिग्रहण के बाद इनकी संख्या विश्वभर में घटकर 4 रह जाएगी और पूरे वैश्विक बीज बाजार में इनका हिस्सा 59 प्रतिशत हो जाएगा। व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार संधि लागू होने से बहुत से देश अब ऐसी नीतियां ला रहे हैं, जिससे किसानों के लिए रिवायती बीज का इस्तेमाल करना बंद या सीमित हो जाएगा। बीज जैव-तकनीक कंपनियां पौधों की प्रजातियों में केवल एक जींस डालती हैं !