ग्लेशियर के फटने से हुई तबाही से समूचे उत्तराखण्ड में हाहाकार

ग्लेशियरों को बचाने की मुहिम चले 
ज्ञाानेन्द्र रावत
उत्तराखण्ड के चमोली जिले में नंदा देवी ग्लेशियर के फटने से विष्णु प्रयाग से ऊपर अलकनंदा की सहयोगिनी धौलीगंगा का बांध बह गया। इससे हुई तबाही से समूचे उत्तराखण्ड में हाहाकार मचा है। असलियत में ग्लेशियर फटने के बाद पानी के दबाव से धौलीगंगा का बांध टूटा, जिससे धौली नदी में बाढ़ आ गई। तपोवन रैणी स्थित ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट बैराज पूरी तरह ध्वस्त हो गया। बांध टूटने और फिर धौली नदी की बाढ़ से चारों ओर तबाही का मंजर पैदा हुआ। समीपस्थ गांवों का शेष दुनिया से संपर्क टूट गया है। चीन सीमा को जोडऩे वाला जोशीमठ-मलाटी पुल ढह गया है।
सेना, एनडीआरएफ, आईटीबीपी और स्थानीय प्रशासन द्वारा घटनास्थल पर राहत कार्य जारी है। बारिश और पारा गिरने से भीषण ठंड से राहत कार्य में रुकावट आ रही है लेकिन जवान विषम हालात में भी तपोवन में राहत कार्य को अंजाम दे रहे हैं।
वैज्ञानिक इस घटना को ग्लोबल वार्मिंग से जोडक़र देख रहे हैं। वह बरसों से चेता रहे हैं कि समूची दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर लगातार पिघलकर खत्म होते जा रहे हैं। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला माउंट एवरेस्ट, बीते 5 दशकों से लगातार गर्म हो रही है। नतीजतन आस-पास के हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं। यह भी सच है कि वह चाहे हिमालय के ग्लेशियर हों या तिब्बत के या फिर आर्कटिक ही क्यों न हो, वहां बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है।
एडवांसेज जर्नल में प्रकाशित अध्ययन सबूत हैं कि बढ़ते तापमान के चलते हिमालय के तकरीबन साढ़े छह सौ से अधिक ग्लेशियरों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। उनकी पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गई है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ अर्थ के अनुसार भारत, नेपाल, भूटान और चीन में तकरीबन दो हजार किलोमीटर के इलाके में फैले 650 से ज्यादा ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते लगातार पिघल रहे हैं। वर्ष 1975 से 2000 के बीच जो ग्लेशियर हर साल दस इंच की दर से पिघल रहे थे, वह 2000 से 2016 के बीच हर साल बीस इंच की दर से पिघलने लगे।
बीते बरसों में डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। उसने सरकार को सिफारिश की कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के व्यापक अध्ययन के लिए पर्याप्त वित्तीय आवंटन और आधारभूत ढांचा मुहैया कराये जाने की बेहद जरूरत है। साथ ही यहां पर्यटन की गतिविधियों को भी नियंत्रित किया जाना बेहद जरूरी है। आईपीसीसी दस साल पहले यह चेता चुकी है कि हिमालय के अधिकांश ग्लेशियर 2035 तक और आइसलैंड के सभी ग्लेशियर आने वाले 200 सालों में ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जायेंगे। अब यह स्पष्ट है कि हिमालय के कुल 9600 के करीब ग्लेशियरों में से तकरीबन 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल कर झरने और झीलों का रूप अख्तियार कर चुके हैं। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो बर्फ से ढकी यह पर्वत शृंखलाएं आने वाले कुछ सालों में बर्फ विहीन हो जायेंगी।
यह सब हिमालयी क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहे बदलाव के साथ-साथ अनियोजित विकास का परिणाम है। हिमालय पर्वत शृंखला के जंगलों में लगी आग से निकला धुआं और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन-सी काली परत पड़ रही है। यह कार्बन हिमालय से निकलने वाली नदियों के पानी के साथ बहकर लोगों तक पहुंच रहा है जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है। गर्म हवाओं के कारण इस क्षेत्र की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। दरअसल जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा प्रकृति का दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है।
हिमालयी क्षेत्र में सबसे ज्यादा तकरीबन 10,000 ग्लेशियर हैं। अकेले उत्तराखण्ड में 900 से ज्यादा ग्लेशियर हैं। यह अब किसी से छिपा नहीं है कि ग्लेशियर दिनों-दिन तेजी से पिघलने से झीलों के बनने की दर में भी बढ़ोतरी होगी जो भयावह खतरे का संकेत है। यह अगर इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो एक दिन ऐसा भी आयेगा जब पेयजल समस्या तो भयावह रूप धारण कर ही लेगी, पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लडऩा बेहद जरूरी है, वहीं ग्लेशियर से बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है। वैज्ञानिक डॉ. डी.पी. डोभाल कहते हैं कि यदि तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो हिमालय के एक-तिहाई ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। इससे पहाड़ी, मैदानी इलाके के 30 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों पर भारत, चीन, नेपाल और भूटान की कमोबेश 80 करोड़ आबादी निर्भर है। इन नदियों से सिंचाई, पेयजल और बिजली का उत्पादन होता है। यदि यह पिघल गए, उस हालत में सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे और ऐसी आपदाओं में बढ़ोतरी होगी।
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