राजनीतिक अतिक्रमण से दुराग्रह का अस्त्र भी बनाया जा सकता है अभिव्यक्ति की आजादी

बिहार सरकार के नये दिशा-निर्देशों के अनुसार किसी हिंसक विरोध-प्रदर्शन में शामिल युवाओं को सरकारी व अनुबंध की नौकरी पाने के हक से वंचित होना पड़ेगा।
ऐसे किसी व्यक्ति के आचरण प्रमाणपत्र में ऐसे व्यवहार को अपराध की श्रेणी में दर्ज किया जाएगा। सरकार की मंशा है कि ऐसी पहल से युवाओं को हिंसक आंदोलन में शामिल होने से रोका जा सकेगा। निस्संदेह युवाओं का हिंसक गतिविधियों में लिप्त होना देश व समाज के हित में नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं फैसले से यह भी ध्वनि निकलती है कि यह कदम एक नागरिक के लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति के अधिकार का अतिक्रमण है।
यह भी कहा जा रहा है कि यह फैसला सख्त है और यह युवाओं की रचनात्मक अभिव्यक्ति में भी बाधक बन सकता है। खासकर उन परिस्थितियों में जब युवा किसी जायज मांग को लेकर आंदोलनरत हों और राजनीतिक व असामाजिक तत्व आंदोलन को हिंसक मोड़ दे दें तो निर्दोष लोग भी दोषी साबित किये जा सकते हैं। निस्संदेह सार्वजनिक जीवन में जब हम अपनी बात कहना चाहते हैं तो तमाशाई भीड़ जुटते देर नहीं लगती।
ऐसे में असामाजिक तत्व मौके का फायदा निहित स्वार्थों के लिये उठा सकते हैं। कई परिस्थितियां ऐसी हो जाती है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन किसी वजह से अचानक उग्र हो जाता है। निस्संदेह किसी सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। युवाओं को ऐसी किसी भी गतिविधि से दूर रहना चाहिए। लेकिन यदि निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करके जायज मांग को लेकर आंदोलनरत लोगों को भडक़ा दिया जाता है तो सामूहिक जवाबदेही में कई निर्दोष लोगों के फंसने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे में बिहार सरकार की नई पहल कई तरह की चिंताओं को जन्म देती है।
ऐसा नहीं है कि पहले से ऐसे कोई कानून नहीं हैं, जिसमें हिंसा करने वालों व व्यवस्था विरोधी कार्यों में लिप्त लोगों को सरकारी नौकरियों के अयोग्य ठहराने का प्रावधान हो। लेकिन अब प्रदर्शन में हुई हिंसा में भागीदारी के लिये अयोग्य ठहराने की व्यवस्था की गई है। लेकिन सवाल यह भी है कि विभिन्न हिंसक राजनीतिक आंदोलनों में शामिल लोगों पर भी कोई ऐसा शिकंजा कसा जायेगा। देखने में आता है कि गंभीर हिंसक घटनाओं में लिप्त राजनेता और उनके पिछलग्गू बड़े-बड़े पदों पर काबिज होने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में किसी व्यवस्था में दो तरह के कायदे-कानून तो नहीं हो सकते। इतना ही नहीं, ऐसे राजनीतिक आंदोलनों में दर्ज आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों को सरकारों पर दबाव बनाकर निर्दोष साबित करने का प्रयास भी होता रहा है। यहां सवाल ऐसे मामलों को देखने वाली एजेंसियों व पुलिस के निरंकुश व्यवहार का भी है जो राजनीतिक व आर्थिक प्रलोभन में किसी निर्दोष को भी नाप सकती हैं। फिलहाल पुलिस से ऐसे संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद कम ही की जा सकती है कि वह केवल दोषियों को ही गिरफ्त में लेगी।
कई घटनाक्रमों में पुलिस का निरंकुश व्यवहार सामने आता रहा है। हमारा स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी के बाद संपूर्ण क्रांति के दौर में हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने कई निर्णायक आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसमें युवाओं की निर्णायक भूमिका रही है। भले ही सरकार की मंशा गलत न हो मगर यहां क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियों की संवेदनशीलता, विवेक व निष्पक्षता का प्रश्न उठता रहेगा। यह भी कि हम दूसरे विकल्पों पर विचार कर सकते हैं? वहीं दूसरी ओर उत्तराखंड पुलिस की उस घोषणा को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि पासपोर्ट व शस्त्र लाइसेंस के लिये आवेदन पर व्यक्ति के सोशल मीडिया रिकॉर्ड को खंगाला जायेगा। जिसकी पोस्ट व टिप्पणी नकारात्मक पायी जायेगी, उसका आवेदन निरस्त कर दिया जायेगा। पुलिस का कहना है कि पहले ही पासपोर्ट के आवेदन में ऐसे नियमों का प्रावधान रहा है, अब उन्हें लागू किया जा रहा है क्योंकि हाल ही में सोशल मीडिया का दुरुपयोग बढ़ा है। अभिव्यक्ति की आजादी के इस अतिक्रमण से इसे राजनीतिक दुराग्रह का अस्त्र भी बनाया जा सकता है।

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