आंसुओं का मोल : पहला मौका किसी विपक्षी नेता के विदाई के मौके पर दो-दो बार PM का गला रुंध गया

नईदिल्ली। मंगलवार को राज्यसभा में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की विदाई के मौके पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भावुक हो गए। देश ने इससे पहले भी कई मौकों पर उन्हें भावुक होते देखा है लेकिन यह पहला मौका है जब किसी विपक्षी नेता के योगदान की चर्चा करते हुए दो-दो बार उनका गला रुंध गया। अपने देश में संसद के अंदर ही नहीं बाहर भी ऐसे दृश्य सामने आते रहे हैं जब राष्ट्र हित, लोकतंत्र और इंसानियत के जज्बे के सामने राजनेताओं के दलीय मतभेद बौने साबित हुए हैं। चाहे राजीव गांधी द्वारा बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के सरकारी खर्च पर अमेरिका में इलाज की व्यवस्था किए जाने का मामला हो, या उनके बाद आए कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव द्वारा कश्मीर के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र में देश का पक्ष रखने की जिम्मेदारी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारुख अब्दुल्ला को सौंपने का- ये बताते हैं कि भारतीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच नीतियों को लेकर मतभेद जरूर रहे हैं, पर आपसी अविश्वास कभी नहीं रहा।
द्विपक्षीय सहयोग और सामंजस्य की यह ठोस जमीन तैयार करने में सबसे बड़ी भूमिका प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की रही, जिसे बाद के प्रधानमंत्रियों और विपक्षी नेताओं ने आगे बढ़ाया। इस सिलसिले में यह भी याद करना जरूरी है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में इमर्जेंसी के दौरान न केवल आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे, बल्कि विपक्ष से संवाद के सारे पुल ध्वस्त करते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत सभी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बावजूद 1977 के आम चुनाव में पराजित होने के बाद जब इंदिरा गांधी जेपी से मिलने गईं तो जेपी ने उनका दिल खोलकर स्वागत किया। इंदिरा गांधी की आंखों में पश्चाताप के आंसू थे, लेकिन जेपी की चिंता यह थी कि बिना वेतन के इंदिरा का घर कैसे चलेगा। इंदिरा गांधी ने भी उस चिंता का सम्मान करते हुए बताया कि पिताजी (जवाहरलाल नेहरू) की किताबों की रॉयल्टी आ जाती है और कुछ सेविंग भी है, उससे काम चल जाएगा। ये केवल औपचारिकताएं नहीं, उस राजनीतिक सद्भाव के उदाहरण हैं जिससे हमारे लोकतंत्र की जड़ों को पोषण मिलता है।
चिंता की बात यह है कि संसद में समय-समय पर दिखाई देने वाले भावुक पलों के बावजूद राजनीति का यह सद्भाव हाल के वर्षों में कम होता गया है। इसका असर न केवल ऊपरी स्तर पर पक्ष-विपक्ष के नेताओं द्वारा एक-दूसरे पर की जाने वाली तीखी टिप्पणियों में दिखता है बल्कि समाज में बिल्कुल नीचे तक मौजूद तीखे विभाजन में भी झलकता है। राजनीतिक धड़ों के बीच ऐसी दूरी, इतना अविश्वास ठीक नहीं है। इससे लोकतंत्र कमजोर होता है। इस बीमारी का इलाज करने की जिम्मेदारी निश्चित रूप से दोनों पक्षों की है, लेकिन सरकार का हाथ हमेशा ऊपर होता है, इसलिए उससे उम्मीद भी ज्यादा की जाएगी। बेहतर होगा कि दोनों पक्षों के राजनेता अपने निजी सौहार्द को सार्वजनिक बनाएं ताकि कार्यकर्ताओं के जरिये नीचे जाकर यह भावना सामाजिक सामंजस्य का रूप ले सके।

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