लोकतंत्र की खूबसूरती भी है रचनात्मक आंदोलन

विश्वनाथ सचदेव
भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है, यह एक हकीकत है और इस पर हम गर्व कर सकते हैं। वास्तविकता यह है कि हमारा जनतंत्र सबसे बड़ा ही नहीं, दुनिया का सबसे पुराना जनतंत्र भी है। आज से ढाई हज़ार साल पहले आज के बिहार भूमि में लिच्छवि गणराज्य की स्थापना की गयी थी। उस गणराज्य की आमसभा में लगभग सात हज़ार गण शामिल होते थे। ये अपने-अपने क्षेत्र के राजा होते थे और ये राजा सामान्यजन की तरह खेती से अपनी जीविका चलाते थे। तब गण सभाओं में विचार-विमर्श करके नीतियां बनती थीं। राजा और रंक दोनों मिलकर शासन चलाते थे। किसी को भी शासन की नीतियों का विरोध करने, निर्भीकता से अपनी बात कहने का अधिकार प्राप्त था। जनता का यही अधिकार उस जनतंत्र की सबसे बड़ी ताकत थी, जिस पर आज हम गर्व कर सकते हैं।
उस दिन राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का उत्तर देते हुए हमारे प्रधानमंत्री जब गर्व से यह कह रहे थे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा ही नहीं, सबसे प्राचीन जनतंत्र है तो वे इसी लिच्छवि गणराज्य की ओर संकेत कर रहे थे। विश्व में जनतंत्र के इतिहास में हमारे भारत का यह स्थान सुरक्षित है। लेकिन हमारे आज के जनतंत्र की सुरक्षा हमारी विवेकशीलता और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा पर निर्भर करती है। हमारे संविधान द्वारा दिया गया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का एक बहुत मज़बूत कवच है। जन के आंदोलन करने के अधिकार की दुहाई देते समय निश्चित रूप से प्रधानमंत्री के मन में इसी कवच की बात होगी। वास्तविकता यह है कि यह अधिकार ही नहीं, जन का कर्तव्य भी है। शासक की कमियों-ग़लतियों की ओर ध्यान दिलाना, अपनी मांगों के समर्थन में आवाज़ उठाना जन की इसी कर्तव्य-पूर्ति का हिस्सा है। जन के अधिकार और जनतंत्र की भावना की रक्षा के लिए पिछले लगभग सत्तर सालों में देश में अनेक आंदोलन हुए हैं। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में जिस तरह देश में आपातकाल के खिलाफ आंदोलन की आंधी उठी थी, वह जनतांत्रिक परंपराओं और अधिकारों की रक्षा के लिए नागरिक की जागरूकता और ताकत का सबसे ज्वलंत उदाहरण है।
समय-समय पर इस देश की जनता ने अपनी इस जागरूकता का परिचय दिया है। यह जागरूकता जनतंत्र के अस्तित्व और सफलता की पहली शर्त है। इस जागरूकता को हल्के में लेने अथवा इसका उपहास करने का अर्थ कुल मिलाकर जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था की कमी का ही द्योतक समझा जा सकता है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में हुई बहस के दौरान प्रधानमंत्री ने बड़े हल्के-फुल्के अंदाज़ में देश को एक शब्द दिया थाö आंदोलनजीवी। उनका कहना था कि आंदोलन जनता का अधिकार है, लेकिन हमारे यहां कुछ ऐसे भी लोग हैं जो श्रमजीवी और बुद्धिजीवी की तर्ज पर आंदोलनजीवी बन गये हैं। उनकी शिकायत यह थी कि ये आंदोलनजीवी किसी भी आंदोलन में नारे लगाने के लिए खड़े हो जाते हैं। प्रधानमंत्री का इशारा किन व्यक्तियों या किन प्रवृत्तियों की ओर था, यह तो नहीं पता, पर इतनी बात अवश्य समझ में आती है कि कथित आंदोलनजीवियों को ‘परजीवी’ कह कर एक तरह से जनतंत्र में आंदोलन करने की आवश्यकता और अधिकार पर भी सवालिया निशान लगाया गया है। किसी के बारे में अपनी राय बनाने-बताने का हर किसी को अधिकार है, पर जब प्रधानमंत्री ऐसा कुछ कहते हैं तो इसका अर्थ व्यापक हो जाता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि आज देश में एक बड़ा आंदोलन चल रहा है। कृषि-कानूनों को लेकर देश के किसान क्षुब्ध भी हैं और आंदोलित भी। राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर देश के अलग-अलग हिस्सों से आये किसान दो-ढाई महीनों से अपनी मांगों के समर्थन में डटे हुए हैं। इसी दौरान काफी किसानों की आंदोलन करते हुए मृत्यु भी हो चुकी है। छब्बीस जनवरी को लाल किले पर हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के अलावा किसानों का यह आंदोलन कुल मिलाकर पूर्णतया अहिंसक रहा है। आज दुनिया भर में भारत के किसानों के इस आंदोलन को जिज्ञासा और प्रशंसा की दृष्टि से देखा जा रहा है क्योंकि भारत दुनिया का ‘सबसे बड़ा, और सबसे प्राचीन’ जनतांत्रिक देश है, इसलिए इस जनतांत्रिक आंदोलन का महत्व और बढ़ जाता है।

जनतंत्र में विरोधी मज़ाक का नहीं, आदर का पात्र होता है। तर्क से उसके विचार को गलत ठहराया जा सकता है, जुमलों से नहीं। जुमले तालियां बटोरते हैं, पर तालियां तो तमाशा दिखाने वाले को भी मिल जाती हैं। आवश्यकता नागरिक का विश्वास जीतने की है। यही जनतंत्र की विशेषता है और ताकत भी।

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