प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से- चुनाव में मुद्दे और मूल्यों के ज्यादा मायने नहीं
संत कबीर का दोहा है –
कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिए कोय।
आप ठगें सुख ऊपजे ,और ठगें दु:ख होय ।।
हमारे देश की महान जनता सदियों से ठगने का सुख भोग रही है। जो जितना झूठा, लफ्फाज, अवसरवादी, झूठे सपने दिखाने वाला है, आश्वासनवादी है वो उतना ही बड़ा नेता है। हमारे देश में जनभावना के साथ खिलवाड़ कर जनता को बार-बार, अलग -अलग सिंबल पर वोट डालने के लिए कहना लोकतंत्र है। हमने इस लोकतंत्र की ये झांकी अभी मध्यप्रदेश में देखी। हमारी जनता भी बहुत भोली है। वो अपनी जान माल की चिंता किये बगैर लोकतंत्र के अश्वमेध यज्ञ में आहूति डालने हमेशा तैयार रहती है। हम राजस्थान का नजारा देखने से बाल-बाल बच गये।
ये सब देखकर दुष्यंत कुमार का शेर याद आना लाजमी है ।
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं।
हमारी संस्कृति मिलावट पसंद है। हमें शुध्द विचार, शुध्द आचरण, शुध्द राजनीति, शुध्द पत्रकारिता सूट नहीं करती। शुध्द धी खाने से हमे अपच होने लगता है। हम इंजियन स्ट्राइल का चायनीज खाना पसंद करते हैं। हमें ओरिजनल चायनीज नहीं जमता। जो अपने चैनल पर चिल्ला-चिल्लाकर बोले, आत्महत्या के लिए लोगों को उकसाये, जो एजेंडा आधारित पत्रकारिता करे, वो बड़ा पत्रकार है। थोड़ी बात हमारे जागरुक कहे जाने वाले मतदाता की। हमारे देश में दलबदल को लेकर कोई ठोस कानून या मान्य परपंरा नहीं है, जिसका फायदा राजनीतिक पार्टियां अपनी सत्ता काबिज करने के लिए करती है। इस काम में राजभवन अपनी केन्द्र के प्रति वफादारी का खुलकर इजहार करता है। कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश में जिस तरह से कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफा करवाकर एक अच्छी खासी सरकार को अल्पमत में लाकर सत्ता से बाहरकिया गया और बाद में उन्हीं इस्तीफा देने वाले विधायकों को मंत्री, निगम मंडल आदि का अध्यक्ष बनाकर उपकृत किया गया। यह राजनीतिक सौदेबाजी की जीती जागती मिसाल थी। ऐसे इस्तीफा देने वाले विधायकों के कारण एक बार फिर विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव हुए, जहां से ये विधायक कांग्रेस के नहीं बल्कि भाजपा के उम्मीदवार थे। ऐसे अवसरवादी, लोकतंत्र का अपमान करने वाले विधायकों को उपचुनाव में जनता ने जिताया। जो लोग खुलेआम साम्प्रदायिकता फैलाते हैं, जातिगत व्यवस्था की वकालत करते हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं उन्हें भी जनता जीताकर विधानसभा, संसद में भेजती है। हमारे न्यायालय, मीडिया और समाज को ये सब कुछ मालूम है किन्तु किसी को उन मूल्यों, सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं। जो नेता एक पार्टी में बेइमान है वही नेता दूसरी पार्टी में आकर ईमानदार हो जाता है। जीत का जूलूस भष्टाचार के चंदे से सजताहै । जो कल तक बेईमान था यदि वो दूसरी पार्टी में साथ हो जाता है तो वह ईमानदार है ।राजनीति की गंगा में साथ डुबकी लगाने से सबके पाप धूल जाते हैं । हमारे चुनाव आयोग द्वाराचाहे कितनी ही आचार संहिता बनाई जाये, व्यय सीमा निर्धारित की जाये किन्तु सभी राजनीतिकपार्टी और उससे जुड़े लोग जानते हैं कि चुनाव में कितना पैसा किस किस तरीके से खर्च होता है।आदर्श चुनाव आचरण संहिता हाथी के दांत की तरह दिखावे और शोभा की वस्तु बनकर रह जातीहै। अधिकांश नेता किसी की पार्टी से क्यों न जीते उसका पहला ध्येय चुनाव में खर्च किये गयेपैसो को सूद सहित वसूलना होता है। अपने पद पावर का उपयोग चुनाव में सहयोग करने वालोको सबसे पहले उपक्रम करने का होता है।
देश में हाल ही में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव और बहुत से राज्यों में हुए उपचुनाव में एक बात बहुत ही साफ तौर से उभर कर आ गई है कि जनता को मूल मुद्दों से कोई खास लेना-देना नहीं है। मीडिया और प्रचार माध्यमों के जरिये जो मुद्दे उठाये, फैलाये जाते हैं, लोग उन्ही के इर्द-गिर्द उलझकर रह जाते हैं।
लॉकडाउन के बाद कोरोना संक्रमण के बीच मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मणिपुर, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, नागपुर, ओडिशा, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ में उपचुनाव हुए। सामान्यत: राजनीतिक पार्टियों की सोच, विचारधारा और कोई न कोई पार्टी लाईन होती है, चुनावी एजेंडा होता है जिसे जीतने पर पूरा करने की बात भी होती है। इधर के चुनावों में अक्सर यह देखा गया है कि पार्टी का घोषणा-पत्र, पार्टी की सोच सेकेंडरी हो जाती है और धर्म, जाति, क्षेत्रीयता से जुड़े मुद्दे अहम हो जाते हैं। बिहार का चुनाव यूपीए महागठबंधन द्वारा सत्ता में आने पर दस लाख लोगों को नौकरी देने के मुद्दे से गरमाया था, किन्तु बाद में एनडीए ने भी 19 लाख लोगों को रोजगार देने की बात कहकर इसे बैलेंस करने की कोशिश की और लोगों को 15 साल पहले के अराजक बिहार की तस्वीर दिखाई। लालूराज की वापसी का खौफ पैदा करने की कोशिश की। चुनाव में बिहार की बेहाली, बेकारी के मुद्दे को छोड़कर धर्म, जाति के मुद्दे प्रमुखता से उठाये गये। जो ओवैसी भाजपा को पानी पी-पीकर कोसते हुए अल्पसंख्यक के साथ ज्यादती की बात कहते नहीं थकते थे वे अप्रत्यक्ष रुप से चुनाव में अपनी पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करके सेक्यूलर पार्टियों के महागठबंधन को नुकसान पहुंचाते हैं। जो मायावती दलितों की बात करके मनुवादी व्यवस्था की वकालत करने वाली भाजपा को गरियाती है वो भी मौका आने पर उसी के साथ दिखाई देती है। सत्ता में सहभागिता के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी, शिवसेना जैसी हिन्दूराष्ट्र की वकालत करने वाली, मराठी अस्मिता की बात करके रोजगार के नाम पर भैय्या लोगों के खिलाफ जहर उगलने वाली पार्टी के साथ समझौता कर लेते हैं। यही हाल अपने आपको कांग्रेस की विरासत का असली वारिस कहने वाले जोगी कांग्रेस का भी छत्तीसगढ़ में रहा। अपने पिता के कथित अपमान का बदला लेने के नाम पर अंतत: अमित जोगी ने भाजपा का दामन थामकर उनके पक्ष में मतदान की वकालत की किन्तु मतदाताओं ने इसे बुरी तरह नकार दिया और कांग्रेस उम्मीदवार की 38 हजार से अधिक वोटों से जीत हुई।
इस जीत पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि मरवाही का उपचुनाव महज विधायक चुनने का चुनाव नहीं था, बल्कि यह मरवाही के साथ बीते 18 सालों तक हुए छल को जनता द्वारा लोकतांत्रिक जवाब देने की परीक्षा थी। मुझे खुशी है कि मरवाही की जनता ने इस परीक्षा को प्रचंड बहुमत से उत्तीर्ण किया है।
राजनीतिक शुचिता, सामाजिक मूल्यों और देश की एकता-अखंडता आपसी भाईचारे की बात करने वाली राजनीतिक पार्टियां चुनाव के दौरान सत्ता में आने के लिए वो सब हथकंडे अपनाती है जिसके खिलाफ वो लगातार बोलती है, प्रदर्शन करती है। बिहार चुनाव के दौरान बने महागठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ हैं। इसके पहले हम और विकासशील इंसान पार्टी भी साथ थी किन्तु टिकटों के बंटवारे को लेकर ये पार्टियां महागठबंधन से अलग होकर एनडीए के साथ चली गई। कहा जाता है कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन और दोस्त नहीं होता, जब जिसको जैसा मौका मिलता है वह तब उसके साथ खड़ा दिखता है।
अपने आपको मोदी जी का हनुमान कहने वाले स्व. रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने मोदी जी और उनकी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार का खुला विरोध करके जानबूझकर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के उम्मीदवार के खिलाफ उम्मीदवार उतारे। भले ही उनका दल एलजेपी अपने एक ही उम्मीदवार जीता पाया हो किन्तु चिराग ने 54 सीटों पर राजनीतिक दलों का सियासी समीकरण बिगाडऩे में अहम भूमिका निभाई। एलजेपी बिहार की 134 सीटों पर चुनावी मैदान में अपने प्रत्याशी उतारकर महज एक सीट ही जीत सकी है। सियासी खेल से एलजेपी ने एनडीए के दलों को 30 सीटों और महागठबंधन को 24 सीटों पर नुकसान पहुंचाया है।
इसी तरह असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी बिहार में महागठबंधन को सत्ता से दूर रखने में अहमभूमिका निभाई। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने सीमांचल क्षेत्र में पांच सीटें जीती है। अब ओवैसी पश्चिम बंगाल में जाकर ममता बैनर्जी का खेल बिगाडऩा चाहते हैं। यानी वे अप्रत्यक्ष रुप से भाजपा को समर्थन करने वाले हंै। जयप्रकाश नारायण की राह पर चलकर बिहार सुशासन बाबू के नेतृत्व में समाजवाद की राह पर चल पड़ा है। आगे रामराज्य का मार्ग चिराग के उजाले में यहीं से प्रशस्त होगा जिसके जुलूस में बहन मायावती, औवेसी के साथ बहुत सी राष्ट्रवादी ताकतें होंगी।