ढाई अक्षर का जीवन
ध्रुव शुक्ल
पूरा जीवन मात्र ढाई अक्षर का है। इस अक्षर को पढ़ लेने से चित्त में सबके प्रति प्रेम उपजता है। जन्म, धर्म, कर्म, मर्म, सत्य — ये सब ढाई अक्षर के हैं। इन्हीं से ढाई अक्षर के प्रेम का घर बनता है। प्रेम के घर में ढहते जीवन की बात ही कुछ और है जो समझते बनती है, बखानी नहीं जाती।
ढाई अक्षर का जन्म ही सृष्टि का सृजन है। ढाई अक्षर के धर्म में ही जगत के पालन और संहार की सहज कला का वास है। इस कला की निरंतर उन्नति ढाई अक्षर के निष्काम कुशल कर्म से होती है। जीवन में ढाई अक्षर का मर्म इतना ही मालूम पड़ता है कि यह संसार एक परस्पर सनातन आश्रय है जहाँ जन्म और मृत्यु के बीच मिली आयु में जल, थल और नभ में बसे हुए बहुरंगे जीवन के बीच मनुष्य को भी स्थान मिला है। सारा जीवन देश-काल की स्थानीयता में बीतकर बार-बार लौट रहा है। बस यही ढाई अक्षर का सत्य है।
जीवन के इस आवागमन के मार्ग पर चलते और इसके अहसास में डूबते हुए ढाई अक्षर के उस प्रेम की प्रतीति होती है जो किसी पोथी
और किसी हाट-बाज़ार में नहीं मिलता। सब अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप प्रेम के जन्मजात प्रवर्तक लगते हैं।
सनातन धारा के किनारों के निकट बसे जीवन के बीच मनुष्य के स्वभाव को पहचाने बिना दूर कहीं किसी सभ्यता की रचना पूरी मनुष्य जाति को अपने निवेश में डुबा रही है। उस सभ्यता के कपटकौशल से भरे रचनाकारों और उसे अनुकरणीय मानकर अपना जन्म गँवाने वालों को ढाई अक्षर की शर्म भी नहीं आ रही।