सुधीर सक्सेना की कविताः गोदो की वापसी

रात वह आया

मेरे डेरे पर

असमय

कि कोई भी अचरज करे

सलवटों से भरा 

किरमिची पतलून पहने

सिर पर हैट,

माथे पर गुम्मड़

शराब और तमाखू का भभका छोड़ता हुआ

टिंग.. ट्रिंग… ट्रिंग…

तीन बार बजी कालबेल

बाहर वह खड़ा था

जर्द आंखों में बेबसी और बेचारगी ऐसी

कि कोई चारा न था ड्राइंगरूम में

उसे आने देने के सिवाय 

‘मैं गोदो हूं,जनाब,’!

सोफे पर पसर कर उसने कहा-

सैम्युअल बैकेट का गोदो,

वहीं गोदो जो लौटता नहीं,

दुनियाभर के लोगों को जिसका इंतजार है

और मशहूर है जिसके बारे में जुमला

कि गोदो कभी नहीं लौटता

वापसी कहीं नहीं गोदो के शब्दकोश में

सारी दुनिया जिसके बारे में कहती है

गोदो कभी नहीं आता,

अनंत हैं उसकी प्रतीक्षा की घडिय़ां

‘मैं गोदो हूं,जनाब,’!

वही गोदो

जो दुनिया भर की तोहमतों का शिकार है…

जनाब !

क्या मुझे पीने को पानी मिलेगा

और नींबू की चंद फांके,

समझ लीजिये मैने पूरा पिचर  औंधे किया है

मदिरा का उदर में

चुटकी भर नमक, प्याज और बिजौरे खीर के सहारे

घटिया पब में बैठकर

और घंटों में लगे हैं मुझे साहस जुटाने लौटने के वास्ते 

पता नही कहां चले गये थे सैमुएल 

ताला जड़ा था उनके द्वार पर

मैं पीता रहा घटिया शराब,

अच्छे दिनों में जिसे पीने से आती थी उबकाई

पब में मेरी मुलाकात

एक अदद रिपोर्टर से हुई,

एक अदद कालगर्ल से,

और एक अदद पीस -वर्कर से

मैंने अपना परिचय दिया

कहा. आय म गोदो…

वेटिंग फॉर गोदो फेम गोदो

वे तीनों हंसे,

जैसे किसी अहमक पर हंसता है

कोई स्कॉलर …

मजाक की भी हद होती है, महाशय

रिपोर्टर ने कहा,

चेहरे से ही लबार नजर आते हो, मिस्टर !

खैर, जो भी है तुम्हारा नाम

लंतरानी छोड़ो… कई दिन से एक भी

गाहक नहीं मिला मोंश्यू !

चलो रात बिताए पड़ोस की सराय में

कम सिक्के भी चलेंगे

कहा चेन-स्मोकर वेश्या ने

किस्सा आगे भी है, जनाब!

वह लडख़ड़ाते हुए तुआले में गया

लौटा तो उसकी पतलून

पांयचे तक उसकी पेशाब में भीगी थी

और कुछ ज्यादा ही उभर आया था

उसके माथे का नीला गुम्मड़

एक प्याली ब्लेक कॉफी की गुजारिश कर

उसने कहा- हां, जनाब,

तो एक दिन लौट आये मिस्टर सैमुएल…

मारिओ पूजो नहीं, इस गोदो के गॉडफादर

मिस्टर सैम्युअल बैकेट…

बहुत लाल-पीले हुए बैकेट साहब

मुझे लौटा देखकर 

कहा, दफा हो जाओ फौरन से पेश्तर,

उन्हीं की छड़ी की देन है यह मुम्मड़

मैंने उनके पांव पकड़े,

गिड़गिड़ाया, मिन्नतें की,

कहा कि लौट आया हूं मैं आखिरकार 

कि कोई भी जाता है तो कहता है, ‘आता हूं’

कहा उन्होंने, गोदा लौटता नहीं

लौटने के लिए मैंने नहीं रचा गोदो

आइदर आई विल शूट यू, ऑर यू रन अवे

उन्होंने मुझे डॉलर से भरा वैलेट दिया,

कहा- लेखक रहमदिल होता है,

और जने से बड़ा है जनक

मैं नहीं चाहता हूं कि तुम्हें कब्र भी नसीब न हो

मैं चला आया… हत्भाग्य …निरीह… और निरुपाय

अब आप ही बताएं दुनिया को

कि गोदो लौट आया था 

सच की दुहाई से भरी हैं आपकी कविताएं

और सारे व्याख्यान …

उधड़े हुए कार्पेट पर

एक गहरी नीद के बाद चला गया गोदो

जाते हुए उसने हैट उतार सिर झुकाया 

बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब!

कि आपने धैर्य से सुना… पानी, नींबू और कॉफी

हाथ मिलाया और चला गया गोदो

मितरो, आप ही बताएं कि कौन था वह

गोदो या कोई बहुरुपिया या कोई सिरफिरा

मुझे यकीन है कि वह कोई भी रहा हो,

परंतु गोदो नहीं था

भला इस तरह कभी लौटता है गोदो?

कवि परिचय

30 सितम्बर 1955 को लखनऊ में जन्में सुधीर सक्सेना ने रूसी भाषा से बहुत से कवियों का हिन्दी में अनुवाद और पोलिश व ब्राजीली कवियों का अनुवाद किया है।  1997 में समरकंद में बाबर कविता संग्रह पर रूस का प्रतिष्ठित ‘पूश्किन पुरस्कार’। इसके अलावा कविता के ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ और ‘सोमदत्त पुरस्कार’। रूसी भाषा में भी एक कविता-संग्रह प्रकाशित हुई है। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ- बहुत दिनों के बाद (1990), काल को भी नहीं पता (1997), समरकंद में बाबर (1997) हैं।

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