आवाज़ कितनी बदल गयी – ध्रुव शुक्ल

ब लोग जीवन की पहचान भूलने लगते हैं तो उनकी आवाज़ भी बदल जाती। वे कुछ कहते ज़रूर हैं पर उसमें गहराई का अनुभव नहीं होता, चतुराई ही झलकती है। लगता है कि वे अपना जीवन किसी बड़े मूल्य के लिए दाँव पर नहीं लगा रहे, बस किसी तरह कुछ उथले तर्क गढ़कर अपने आपको बचा रहे हैं। आवाज़ में आत्मीयता का विस्तार खो रहा है । वह केवल अपने-अपने मनमानेपन में सिमटती जा रही है। अब आवाज़ याद नहीं रहती, वह शोर में खो जाती है। धर्म में पाखण्ड से, राजनीति में घमण्ड से, बाज़ार और मीडिया में उद्दण्डता से भरी आवाज़ें जीवन को उसकी प्रकृति और संस्कृति से विचलित करके किसी अनजान दुनिया में हाँके लिए जा रही हैं।

बीते ज़माने की कुछ आवाज़ें आज भी स्मृति में कौंधती हैं । किताबों में अंकित उनके शब्द हरेक द्वार पर दस्तक देकर आज भी सबको पुकार रहे हैं  -वेदव्यास और श्रीकृष्ण की आवाज, बुध्द और आदि शंकराचार्य की आवाज़,  कालिदास और भवभूति की आवाज़, तुलसीदास और कबीर की आवाज, रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस और श्री अरविंद की आवाज़, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टेगोर और जवाहरलाल नेहरू की आवाज़ें हमारे करीब आने के लिए आतुर हैं।

शाइर मिर्ज़ा ग़ालिब आज भी हमसे पूछ रहे हैं–

हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गु़फ्तगू क्या है

कवि जयशंकर प्रसाद हमसे कह रहे हैं —

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ

इसमें क्या है धरा, सुनो!

मानस जलधि रहे चिर चुम्बित

मेरे क्षितिज उदार बनो 

सीमांत गांधी अब्दुल गफ़्फार खान की आवाज़ आ रही है – इंसानी बिरादरी के लिए जियो।

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